क्या लोकतंत्र अब केवल इवेंट बनकर रह गया है?

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2025 का भारत एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां लोकतंत्र की चमक तो है, लेकिन उसकी आत्मा थकी-हारी और घुटी हुई महसूस होती है। चुनाव होते हैं, पर विकल्प सीमित हैं। वादे किए जाते हैं, पर ज़मीनी बदलाव दुर्लभ हैं। और सबसे बड़ी बात — जनता की भागीदारी अब केवल मतदान तक सीमित कर दी गई है।

जिस लोकतंत्र की कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी, जिसमें हर नागरिक की आवाज़ सत्ता की नींव बनती — वह सपना अब भाषणों, नारों और प्रचार अभियानों के धुंए में खो गया है। आज सत्ता जनसेवा से अधिक जन-प्रबंधन बन चुकी है, और उसका सबसे प्रभावशाली हथियार है — इवेंट आधारित शासन


‘विकास’ अब योजनाओं में नहीं, पोस्टरों में दिखता है

सड़कों का उद्घाटन, डिजिटल मंचों पर घोषणाएं, और कैमरों के सामने भाषण — यही आज की राजनीति की पहचान बनती जा रही है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, कृषि, और न्याय जैसे बुनियादी मुद्दे प्रचार की धारा में कहीं पीछे छूट गए हैं।

सच यह है कि आम आदमी की ज़िंदगी में सुधार की गति बेहद धीमी है। किसान आज भी कर्ज़ में डूबा है, युवा रोज़गार के लिए दर-दर भटक रहा है, और महिलाएं सुरक्षा की आस में न्याय की प्रतीक्षा कर रही हैं।


मीडिया की भूमिका पर उठते सवाल

मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, उसकी स्वतंत्रता और निष्पक्षता पर आज गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। समाचार संस्थानों का बड़ा हिस्सा सत्ता के पक्ष में झुका हुआ दिखाई देता है। प्राइम टाइम पर गंभीर मुद्दों की बजाय बहसों में उन्माद और भ्रम परोसे जाते हैं।

जनता के मुद्दों को जगह देने की बजाय, टीआरपी और ‘इन्फोटेनमेंट’ की दौड़ ने मीडिया को अपनी भूमिका से दूर कर दिया है। यह स्थिति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है।


न्यायपालिका को लेकर विश्वास की बहस

न्यायपालिका लोकतंत्र की रीढ़ होती है। लेकिन हाल के वर्षों में कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं, जिनके बाद यह सवाल उठने लगे हैं कि क्या न्यायपालिका पर किसी प्रकार का दबाव तो नहीं? स्पष्ट रूप से यह कहना उचित नहीं होगा कि न्यायपालिका स्वतंत्र नहीं है, लेकिन सार्वजनिक विमर्श में ऐसे संकेत ज़रूर मिलते हैं कि न्याय की प्रक्रिया में पारदर्शिता और तटस्थता को लेकर भरोसे में थोड़ी दरार आई है।

यह ज़िम्मेदारी भी हम सबकी है कि न्यायपालिका की गरिमा को बनाए रखते हुए, उसकी निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक विश्वास को मजबूत करें।


विपक्ष की कमजोरी लोकतंत्र की बड़ी चुनौती है

विपक्ष लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण आधार है। लेकिन आज की राजनीतिक स्थिति यह दिखा रही है कि विपक्ष में एकजुटता और प्रभावशाली नेतृत्व का अभाव है। सरकार को जवाबदेह ठहराने के लिए जिस ताक़त की ज़रूरत है, वह आज विपक्ष में दुर्भाग्यवश नज़र नहीं आती। और यह शून्य, लोकतंत्र को कमजोर करने का रास्ता बनाता है।


अब जनता ही असली विपक्ष है

जब राजनीतिक संस्थाएं अपनी भूमिका से पीछे हटती हैं, तब जनता को आगे आना होता है। लोकतंत्र की असली ताकत आम नागरिक की जागरूकता और सक्रिय भागीदारी में है। सवाल पूछना, जवाब मांगना, और नीतियों पर विचार करना — यही लोकतंत्र की असली भावना है।

अब वक्त आ गया है कि हम अपनी चुप्पी तोड़ें, और आवाज़ बनें उन करोड़ों लोगों की, जिनकी आवाज़ें दबा दी गई हैं। लोकतंत्र का अर्थ केवल मतदान नहीं, सतत निगरानी और सक्रिय हस्तक्षेप भी है।


निष्कर्ष: लोकतंत्र बचाना है तो सवाल करना सीखिए

यह संपादकीय किसी दल के विरोध या पक्ष में नहीं है। यह एक नागरिक की आवाज़ है, जो यह कह रही है कि अगर लोकतंत्र को जीवित रखना है, तो हमें सतर्क और सक्रिय रहना होगा। हमें सरकारों से उनके वादों पर जवाब मांगना होगा — नारे नहीं, नतीजे देखने होंगे।

क्योंकि लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने की प्रक्रिया नहीं है — यह जनता के जीवन को बेहतर बनाने का संकल्प है। और उस संकल्प की याद दिलाना अब हम सबका दायित्व है।


✍️ प्रस्तुतकर्ता: SK Hajee
(स्वतंत्र पत्रकार और संपादक, SK Hajee Official)



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